बिहार के हथुआ राज की अनसुनी कहानी, कैसे राजा शाही को तमकुही राज जाना पड़ा । Unheard story of Hathwa Raj of Bihar in hindi । फतेह बहादुर शाही और अंग्रेजों की लड़ाई का पूरा सच, जानें यहां
क्रांतिकारियों की भूमी रही बिहार के हर गांव से इतिहास की बू आती है. फिर चाहे वह बिहार का पूर्वी चंपारण हो या गोपालगंज जिले की मीरगंज नगर परिषद (Mirganj). बिहार के हर हिस्से में इतिहास की अमिट छाप है. पोस्ट के जरिए आज हम हथुआ राज के शाही परिवार, मीरगंज (Mirganj) और लाइन बाजार के इतिहास के बारे में विस्तृत से जानेंगे.
कहानी शुरू होती है पूर्व के सारण जिले के छोटे से कस्बे हुस्सेपुर के एक छोटे जमींदार से, सरदार बहादुर शाही जिनके बड़े पुत्र फतेह बहादुर शाही ने अपने पराक्रम से हुस्सेपुर के जमींदार से बनारस के राजा चेत सिंह की मदद से हुस्सेपुर पर कब्जा कर राजा बने थे. जिसके बाद राजा फतेह बहादुर शाही ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग का ऐलान करते हुए पूर्व से आजादी की लड़ाई लड़ रहे बंगाल के नबाब मीरकाशिम के साथ खड़े हो गए.
बंगाल के राजा की मदद के लिए शाही ने मुंगेर से लेकर बक्सर तक सैन्य सहयता दी. जंग अंग्रेजों ने जीता. फलस्वरूप वर्ष 1765 की इलाहाबाद संधि की शर्तों के अनुसार बंगाल बिहार और उड़ीसा राज्य की दीवानी शक्ति अंग्रेजों को मिली.
जंग से हारने के बाद राजा शाही ने बेतिया और हुस्सेपुर राज घरानों की मदद से अग्रेजों का विरोध किया, और संयुक्त रूप से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को चुनौती दी. बाद में बेतिया के शासक ने कम्पनी के अधिकारियों से समझौता कर लिया, लेकिन फतेह बहादुर शाही ने हार नहीं मानी.
अपने मित्र आर्या शाह की सूचना पर फतेह बहादुर शाही ने अपने सैनिकों के साथ मिलकर अंग्रेजों के लाईन बाजार कैम्प पर हमला बोल दिया. जिसमें अंग्रेजों के सेनापति मिर्जाफर सहित सैकड़ो अंग्रेज मारे गए. इसी मिर्जाफर के नाम पर मीरगंज शहर का नाम मीरगंज पड़ा था.
ब्रिटिश हुकूमत के लिए यह पहला मौका था कि भारत में किसी ने उन्हें इतनी बड़ी चुनौती दी हो. फतेह बहादुर शाही के मित्र आर्याशाह को जब यह लगा की अंग्रेज उन्हें अपने कब्जे में लेकर मार डालेंगे तब आर्या शाह ने अपने मित्र के हाथों से अपनी समाधि तैयार कराई और हँसते हुए मौत के गले लगा लिया.
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आर्या शाह ने यह प्रण किया था की अंग्रेजों के हाथों नहीं मारे जाएंगे, आज अभी शाह बतरहा में आर्या शाह का मकबरा मौजूद है. अंत में थक हारकर अंग्रेजों ने फतेह बहादुर शाही के भाई बसंत शाही को मिलाकर उन्हें राज सौंपने का लालच दिया.
और अंग्रेजों उन्हें उकसाकर बसंत शाही से जादोपुर में 25 घुड़सवारों के साथ लगान की वसूली शुरू कर दी. मामले की सूचना फतेह बहादुर शाही को लगी, तो सगे भाई के इस धोखे से नाराज होकर फतेह बहादुर शाही ने गोपालगंज के उतर जादोपुर में 25 सौनिकों से साथ लगान वसूल रहे भाई को मौत के घाट उतार दिया.
जिसके बाद बसंत शाही का कटा हुआ सिर हुस्सेपुर में उनकी पत्नी शाहिया देवी के पास भिजवा दिया. परिणाम यह हुुआ कि, पति के कटे हुए सिर को लेकर रानी अपनी ग्यारह सखियों के साथ सती हो गयी.
रानी जिस स्थान पर सती हुई उसे आज सईया देवी के नाम से जाना जाता है. दूसरी ओर बसंत शाही की दूसरी पत्नी गर्भवती थी जिसको बसंत शाही के विश्वाशपात्र सिपाही छ्जू सिंह फतेह बहादुर शाही के डर से अपने गांव भरथूई (जो की सिवान जिले में हैं) लेकर चले गए.
जहां महेशदत शाही का जन्म हुआ. फतेहशाही का खौफ इस कदर था कि, जीवनभर महेशदत शाही को फतेहशाही से छिपना पड़ा. महेश शाही ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिनका नाम छत्रधारी शाही था. इधर फतेह बहादुर शाही द्वारा उत्पन्न की गयी परिस्थितियों से हारकर अंग्रेजों ने हुस्सेपुर राज में वसूली बंद कर दी.
साल 1781 में जब वारेन हेस्टिंग्स को इस बात का पता चला कि, तो उसने भारी सैन्य शक्ति के साथ फतेह बहादुर शाही के विद्रोह को दबाने की कोशिश की लेकिन, असफल रहा अपने उपर बढ़ते दबाव और हार न मानने की जिद्द के बीच फतेह बहादुर शाही ने हुस्सेपुर से कुछ दूर जाकर पश्चिम-उतर दिशा में जाकर अवध साम्राज्य के बागजोगनी के जंगल के उत्तरी छोर पर तमकोही गाव के पास जंगल काटकर अपना निवास बनाया.
कुछ दिनों बाद अपनी पत्नी और चारों पुत्रों को लेकर वहां गए और कोठिया बनवाकर रहने लगे. दूसरी ओर वारेन हेस्टिंग्स ने फतेह बहादुर को हराने के लिए इंग्लैंड से सेन्यबल बुलवाया. लेकिन कोई परिणाम नहीं निकल सका. इधर वारेन हेस्टिंग्स के बनारस राज पर अतिरिक्त पांच लाख का लगाया. राजा चेतसिंह ने जब कर देने से इंनकार कर दिया तो अंग्रेजों का कहर उनपर टूटना शुरू हुआ.
अंग्रेजों से लड़ने के लिए राजा चेतसिंह ने शाही की मदद मांगी, युद्ध शुरू हुआ जिसमें फ़तेह शाही का बड़ा बेटा मारा गया, लेकिन अंतत: अंग्रेजी सेना को चुनार की ओर पलायन करना पड़ा.
उसके बाद अवध के नबाब पर बनाया गया दबाव
राजा चेतसिंह से हार मानने के बाद अग्रेजों ने अवध के नबाब पर दबाव बनाते हुए फतेह बहादुर शाही को अपने क्षेत्र निकालने के लिए कहा, लेकिन नबाब मौन रहें. दूसरी ओर अंग्रेजों के पक्ष में जयचंदों, मानसिंह और मीरजाफरों की संख्या बढ़ती गई.
महाराजा फतेह बहादुर शाही 1800 तक तमकुही राज में रहें, जिसके बाद अचानक कहीं चले गए. किवदंति है कि,वे सन्यासी हो गए, तो किसी ने बताया की चेत सिंह के साथ महाराष्ट्र चले गए.
हथुआ को कैसे मिला राज का दर्जा
महाराजा फतेह बहादुर शाही जब हुस्सेपुर छोड़कर तुमकुही में रह रहे थे, तो राजा के भाई बसंत शाही के पुत्र महेशदत शाही ने अंग्रेजों के संरक्षण में हथुआ में घर बनाया. फतेह बहादुर शाही के जीवित होने का विश्वास होने के कारण अंग्रेजों ने वर्षों हथुआ को राज का दर्जा नहीं दिया था. फतेहबहादुर शाही की मृत्यु की पुष्टि होने के बाद ही हथुआ को राज का दर्जा दिया गया.
हुस्सेपुर का हथुआ राज में विलय
ईस्ट इंडिया कंपनी इस बात से चिंतित थी कि हुस्सेपुर का राज्य किसे सौंपा जाए. काफी मंथन के बाद महेशदत शाही के नाबालिक पुत्र छत्रधारी शाही को राजा बना दिया गया. सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए नाबालिक राजा के पालन – पोषण का दायित्व बसंत शाही के विश्वाशपात्र सिपाही छज्जू सिंह को सौंपा गया.
27 फरवरी 1837 को छत्रधारी को गद्दी पर बैठाया गया और महाराज बहादुर के ख़िताब से नवाजा गया. राजा के गद्दी पर बैठते ही हुस्सेपुर राज्य का हथुआ में विलय कर दिया गया. हथुआ राज के अंतिम महाराजा महादेव आश्रम प्रताप शाही थे.
साल 1956 में बिहार में जमींदारी उन्मूलन कानून लागू हो गया. महाराजा फतेह बहादुर शाही की कीर्ति की साक्षी झरही नदी निरंतर प्रवाहित हो उनका यशोगान कर रही है. आपकों जानकर हैरानी होगी कि, तमकुही राज से जुड़े लोग आज भी हथुआ राज का पानी नहीं पीते है.
कारण है कि, महाराजा फतेह बहादुर शाही के साथ किए गए कुलघात और हथुआ राज को अंग्रेजों के संरक्षण बताते हुए ही तमकुही राज के लोग हथुआ राज का पानी पीना हराम समझते है. दूसरी ओर हथुआ और हुस्सेपुर को छोड़कर तमकुही में अपनी रियासत बनाने के बाद फतेह बहादुर ने हथुआ राज की तरफ पलट कर देखना भी हराम समझा.
साभार : इंडिया टुडे (08.08.2007)
पुस्तक : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम वीर नायक, संपादक—अक्षयवर दीक्षित
प्रकाशन : अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार
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