हमारे भारतवर्ष में आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। आज भी सभी मत, पंथ और संप्रदाय में गुरु पूर्णिमा को बड़े धूमधाम से श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। आषाढ़ पूर्णिमा को ही महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्म हुआ था। उन्होंने ही वैदिक ऋचाओं को एकत्रित कर चार वेदों की रचना की। इस कारण उन्हें महर्षि वेद व्यास भी कहते हैं। उन्होंने ही महाभारत, 18 पुराणों व 18 उप पुराणों की रचना की थी जिनमें भागवत पुराण जैसा अतुलनीय ग्रंथ का भी समावेश है। वैदिक ज्ञान को धरातल में लानेवाले वेदव्यास को आदिगुरु की संज्ञा दी गई है और उन्हीं के सन्मान में व्यास पूर्णिमा को ‘गुरु पूर्णिमा’ के नाम से मनाया जाता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना के समय इसके संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिरामपंत हेडगेवार ने ज्ञान, त्याग व यज्ञ की संस्कृति की विजय पताका भगवे ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया। आज भी प्रतिदिन शाखा पूजनीय भगवा ध्वज (गुरु) की छत्रछाया में एकत्रित हो भारतमाता को परमवैभव पर ले जाने की साधना करोड़ों स्वयंसेवक विश्वभर में करते हैं। विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना के समय इसके संस्थापक श्री एकनाथ रानडे ने ईश्वर के वाचक प्रणवमन्त्र ओंकार को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया।
उल्लेखनीय है कि भारत के सभी सम्प्रदायों और पंथों में गुरु को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। प्रत्येक समाज में सबसे पहले गुरु की वंदना होती है। पुराणों ने गुरु को सर्वप्रथम पूजनीय बताया है। सदगुरु कबीर साहब ने तो यहां तक कह दिया कि
“सात द्वीप नौ खंड में, गुरु से बड़ा न कोय।
करता करे न कर सके, गुरु करे सो होय।।”
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में गुरु की भूमिका सबसे अधिक होती है। शिष्य अपने गुरु के बताए पथ पर आगे बढ़ता है। शिष्य के जीवन में सदाचार, कौशल, ज्ञान और बुद्धिमत्ता का विकास गुरु की कृपा से ही संभव होता है। इसलिए शिष्य को गुरु का कृपापात्र होना जरुरी होता है। जिसमें पात्रता नहीं वह कदापि ज्ञान का अधिकारी नहीं हो सकता। संत कबीर ने शिष्य के पूर्ण समर्पण को प्राथमिकता देते हुए कहा है कि :-
“पहले दाता शिष्य भया, तन मन अरपे शीश।
दूसर दाता गुरु भया, जिन ज्ञान दिया बख्शीश।।”
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एक तरफ जहां शिष्य के समर्पण को महत्वपूर्ण बताया गया है, वहीं हमारे शास्त्र में गुरु का अपमान करनेवालों को मूर्ख और पापी बताया गया है। गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाले या अवहेलना करनेवालों के लिए दंड का भी विधान है। महर्षि वेदव्यास ने कहा है कि
‘शिष्यस्याशिष्यवृत्तेस्तु न क्षन्तव्यं बुभूषता।’
(महाभारत, आदिपर्व,79/9)
अर्थात जो शिष्य होकर भी शिष्योचित बर्ताव नहीं करता, अपना हित चाहनेवाले गुरु को उसकी धृष्टता क्षमा नहीं करनी चाहिए।
शिष्य के मन में अपने गुरु के प्रति कभी भी अविश्वास या संदेह नहीं होना चाहिए। गुरु की निंदा व गुरु का विरोध प्रत्यक्ष तो दूर मन में भी नहीं लाना चाहिए। संत कबीर ने कहा है कि ‘‘गुरु की निंदा सुने जो काना, ताको नाही मिले भगवाना।” उन्होंने कहा कि
“कबिरा ते नर अंध है, गुरु को समझे और।
हरि रूठे गुरु शरण हैं, गुरु रूठे नहीं ठौर।।”
संत कबीर के अनुसार कभी ईश्वर रूठ गए तो गुरु हमारी रक्षा करते हैं, पर यदि शिष्य अपने गुरु को ठेस पहुंचता है तो उसे भगवान भी क्षमा नहीं करते। इसलिए शिष्य को चाहिए कि उससे कभी कोई भूल न हो। यदि कभी गलती हो गई तो तुरंत ही उसे अपनी भूल सुधारकर गुरु के शरणागत हो जाना चाहिए, क्योंकि गुरु तो बड़े कृपालु होते हैं। उनके मन में अपने शिष्य के प्रति बेहद करुणा होती है।
हमारे समाज में गुरु किसे कहा जाए, इसकी अनेक अवधारणा है। हमारे देश में शिशु के जन्मदात्री माता, शिशु की सेवा करनेवाली दाई मां, नाम रखनेवाले पण्डित, शिक्षा देनेवाले शिक्षक, विवाह सम्पन्न करनेवाले पुरोहित, मंत्र देनेवाला धार्मिक व्यक्ति तथा अंतिम संस्कार करनेवाला सामाजिक व्यक्ति- ये सभी तो गुरु माने जाते हैं। इन सभी से श्रेष्ठ और महान् गुरु है जो जीव को भय-बन्धन से मुक्त कर दिव्य जीवन प्रदान करता है। इसी गुरु को सदगुरु की उपाधि मिलती है। सदगुरु के समान अधिकारी, मनुष्यों में तो कोई है ही नहीं, देव-वर्ग भी इस श्रेणी में नहीं आते। सदगुरु कबीर साहब ने गुरु को गोविन्द से भी अधिक महत्व दिया है। गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए संत कबीर कहते हैं :-
“गुरु गोविन्द दोउ खडे, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो लखाय।।”
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावनहार॥
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिए जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान॥
गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़ी गढ़ी काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।
हमारे देश में गुरु-शिष्य परम्परा के अनेक उदाहरण है, जिनमें महर्षि वशिष्ठ-श्रीराम, महर्षि संदीपनी-श्रीकृष्ण, सदगुरु कबीर-धनि धर्मदास, समर्थ रामदास-शिवाजी महाराज, श्रीरामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानन्द आदि का समावेश है। इसी प्रकार गुरु द्रोणाचार्य के प्रति एकलव्य की गुरुभक्ति को विशेष स्थान प्राप्त है। अतः गुरु के महत्त्व को समझते हुए हमें अपने जीवन को गुरुमय बनाना आवश्यक है। इसके लिए जरुरी है कि हम अच्छे गुरु की तलाश करें, क्योंकि आज गुरु बनने और शिष्य बनाने की होड़ सी मच गई है।
हर गांव-गली में भेषधारी अनेक बाबा, साधू अपने को गुरु बताकर श्रद्धालुओं को ठगते हैं। ऐसे में बड़ी सावधानीपूर्वक गुरु का शोध करना चाहिए। इस आधुनिकता की होड़ में गुरु के प्रति निष्ठा कम न हो पाए इसपर भी हमें ध्यान देना होगा। हमारे देश के सभी मत-सम्प्रदायों में बड़े-बड़े महापुरुष, गुरु और आचार्य हुए हैं। आइए, इस गुरु पूर्णिमा में हम अपने तथा उन सभी महापुरुषों को नमन कर अपने जीवन को सत्य-धर्म के पथ पर ले जाने का संकल्प करें।
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