
Hindi Katha: राजा धर्मध्वज की पत्नी का नाम माधवी था। महालक्ष्मी की कृपा से कार्तिक की पूर्णिमा के दिन माधवी के गर्भ से एक सुंदर और दिव्य कन्या उत्पन्न हुई। उस समय शुभ दिन, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रह का योग चल रहा था । उस कन्या का वर्ण श्याम था। उसकी दिव्य कांति से सारा महल प्रकाशमान हो रहा था। उसके दिव्य मनोहारी रूप की तुलना असम्भव थी, इसलिए विद्वानों ने उसका नाम तुलसी रखा।जन्म लेते ही तुलसी तपस्या करने के लिए बद्रिकावन में चली गई। ‘ श्रीविष्णु मेरे स्वामी हों’ – यही विचार करके उसने दीर्घकाल तक कठोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी वरदान देने के उद्देश्य से वहाँ प्रकट हुए और तुलसी से बोले – “हे पुत्री ! तुम्हारी तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। इच्छित वर माँगो ।तुलसी ने ब्रह्माजी को प्रणाम किया और विनीत स्वर में बोली – “हे परम पिता ! आप सर्वज्ञ हैं, फिर भी मेरे मन में जो अभिलाषा है, उसे मैं कह देती हूँ। पूर्वजन्म में मैं भगवान् श्रीकृष्ण की प्रिया, सेविका और प्रेयसी थी। एक बार मैं प्रभु श्रीकृष्ण के साथ हास-परिहास कर रही थी। तभी अचानक रास की अधिष्ठात्री देवी श्रीराधा वहाँ पधारीं। मुझे भगवान् श्रीकृष्ण के निकट देखकर वे अत्यंत क्रोधित हो गईं और मुझे मानव – योनि में उत्पन्न होने का शाप दे दिया। श्रीकृष्ण ने मुझे मनुष्य योनि धारण करके तपस्या करने के लिए कहा था और मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार करने का वचन दिया था। उनकी आज्ञा से मैंने अपना दिव्य शरीर त्याग दिया और धरती पर उत्पन्न हुई। अतः हे प्रभु! मुझे भगवान् नारायण पति के रूप में प्राप्त हों, यह वर दीजिए। “ब्रह्माजी बोले – “देवी ! प्राचीन काल में श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए एक गोप सुदामा को राधा ने दैत्य वंश में जन्म लेने का शाप दे दिया था। वही सुदामा दैत्यराज दनु के कुल में शंखचूड़ के नाम से उत्पन्न हुआ है। श्रीकृष्ण का अंशरूप होने के कारण वह बहुत वीर, शक्तिशाली और पराक्रमी है । जगत् में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता। उसे पूर्वजन्म की सभी बातें याद हैं । हे देवी! वह तुम्हारे लिए उचित वर है। तुम दैत्यराज शंखचूड़ को अपने पति के रूप में स्वीकार करो । इसके बाद सरस्वती के शाप को सत्य करने के लिए तुम्हें तुलसी- पौध के रूप में जन्म लेना होगा। सम्पूर्ण पौधों में तुम्हें श्रेष्ठ स्थान प्राप्त होगा। तुम्हारे बिना भगवान् श्रीहरि की पूजा निष्फल समझी जाएगी। तुम्हारा एक अन्य नाम वृंदावनी भी होगा। शाप की अवधि पूर्ण होने पर तुम वृक्षों की अधिष्ठात्री देवी बनकर भगवान् श्रीकृष्ण में लीन हो जाओगी । “परमपिता ब्रह्माजी ने तुलसी को भगवती राधा के सोलह अक्षरों वाले मंत्र का जप करने के लिए कहा और वहाँ से अंतर्धान हो गए। भगवती राधा को प्रसन्न करने के लिए तुलसी षोडशाक्षर मंत्र का निरंतर जप करने लगी।भगवती राधा के षोडशाक्षर मंत्र का श्रद्धा और भक्तिपूर्वक निरंतर जप करके देवी तुलसी उन्हीं के समान सिद्ध देवी हो गई। एक बार दैत्य शंखचूड़ बदरिकावन में आया। वह रत्नमय अलंकारों से अलंकृत था । उसकी कांति सूर्य के समान तेजपूर्ण थी। जैगीषव्य मुनि की कृपा से उसे भगवान् श्रीकृष्ण का एक अमोघ मंत्र प्राप्त हुआ। उसने पुष्कर क्षेत्र में तपस्या करके उस मंत्र को सिद्ध कर लिया था। ब्रह्माजी उसे इच्छित वर दे चुके थे और उन्हीं की प्रेरणा से वह वहाँ आया था।तुलसी को देखकर दैत्यराज शंखचूड़ उसके पास आया और उसका परिचय पूछा। तब तुलसी लजाते हुए बोली – “देव ! मैं राजा धर्मध्वज की पुत्री हूँ। तपस्या के विचार से इस तपोवन में निवास कर रही हूँ । देव ! साध्वी कन्या से इस प्रकार एकांत में वार्तालाप करना असामाजिक है, अत: कृपया आप यहाँ से लौट जाइए। “तुलसी की ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर शंखचूड़ बोला – ” साध्वी ! तुम्हारा कथन पूर्णतः सत्य है। कुलीन पुरुष इस प्रकार एकांत में परस्त्री से कुछ भी नहीं पूछते । किंतु हे देवी ! इस समय मैं ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम्हारे पास आया हूँ और उन्हीं की आज्ञा से तुम्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता हूँ। मैं दनुवंश में उत्पन्न दैत्य शंखचूड़ हूँ। देवी राधिका के शाप से मैं दानवेन्द्र बना हूँ। भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से मुझे पूर्वजन्म की सारी बातें याद हैं। तुम भी पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण की गोपी तुलसी थी। यह बात भली-भाँति जानती हो ।तुलसी बोली – “हे देव ! मुझे सारी बातें ज्ञात हैं। आप जैसे श्रेष्ठ, ज्ञानवान और सद्विचार वाले पुरुष के समक्ष मैं परास्त हो गई। आप जो उचित समझें, करने की आज्ञा दें। आपकी आज्ञा मुझे पूर्णतः स्वीकार है । ‘तभी वहाँ परमपिता ब्रह्माजी प्रकट हुए और शंखचूड़ से बोले -” वत्सशंखचूड़ ! जिस प्रकार तुम पुरुषों में श्रेष्ठ हो, उसी प्रकार यह साध्वी देवी स्त्रियों में रत्न के रूप में सुशोभित है। तुम दोनों का विवाह पूर्व निर्धारित है। इसलिए अब तुम्हें गंधर्व-विवाह के नियमों के अनुसार तुलसी को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।’तत्पश्चात् वे तुलसी से बोले – “हे देवी! जैसे देवी लक्ष्मी श्री नारायण के पास, राधिका श्रीकृष्ण के पास, देवी उमा शिवजी के साथ और रति कामदेव के पास सुशोभित हैं, वैसे ही तुम शंखचूड़ की सौभाग्यशाली पत्नी बनकर सुशोभित हो जाओ। इसके बाद तुम पुनः गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण के पास चली जाओगी और शंखचूड़ भी इस शरीर का त्याग कर वैकुण्ठ में जाकर भगवान् श्रीविष्णु में लीन हो जाएगा।”इस प्रकार ब्रह्माजी के परामर्श से शंखचूड़ ने तुलसी से गंधर्व – विवाह करके उसे अपनी पत्नी बना लिया और उसके साथ आनन्दमय जीवन बिताने लगा ।परम सुंदरी तुलसी के साथ आनन्दमय जीवन बिताते हुए दैत्यराज शंखचूड़ ने अनेक वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया। अपनी शूरवीरता से शंखचूड़ ने देवताओं के सारे अधिकार छीन लिए। देवता सैकड़ों वर्षों तक वन-वन भटकते फिरे । फिर सभी ओर से निराश होकर ब्रह्माजी की शरण में गए और अपनी दुर्दशा के बारे में बताते हुए सहायता की प्रार्थना करने लगे।ब्रह्माजी शिव और अन्य सभी देवताओं के साथ भगवान् विष्णु के पास गए और उनकी स्तुति करते हुए बोले – ” ‘भगवन् ! पृथ्वी पर दैत्यराज शंखचूड़ ऋषि- मुनियों पर अत्याचार कर रहा है। उसने सभी देवताओं को पराजित कर उनके सारे अधिकार छीन लिए हैं। चारों ओर अराजकता उत्पन्न हो गई है। हे दयानिधान ! अब आप ही हमारी रक्षा करें। हम सब आपकी शरण में हैं। दैत्य शंखचूड़ का अंत आपके सिवा और कोई नहीं कर सकता । ब्रह्माजी की करुण विनती सुनकर विष्णु बोले – “ब्रह्मदेव ! तेजस्वी दैत्य शंखचूड़ पूर्व जन्म में मेरे अंश से उत्पन्न सुदामा नामक एक गोप था। मुझ पर उसकी अटूट श्रद्धा थी। उसके दैत्य वंश में जन्म लेने के शाप की कथा परम पुण्यदायक और पवित्र है।तब ब्रह्माजी हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक बोले – ” दयानिधान ! हम भी उस पुण्यमय कथा को सुनना चाहते हैं। आप उस पुण्यकारी कथा को सुनाने की कृपा करें प्रभु।’ “भगवान् विष्णु बोले – “ब्रह्मदेव ! प्राचीन काल में शंखचूड़ सुदामा नाम से प्रसिद्ध हमारा एक प्रिय गोप था। मेरे पार्षदों में वह प्रधान था। एक बार उसकी किसी बात पर क्रोधित होकर भगवती राधा ने उसे दानव योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया था। क्रोधवश देवी राधा ने शाप तो दे दिया, किंतु जब सुदामा मुझे प्रणाम करके रोता हुआ सभा भवन से बाहर जाने लगा, तब दयामयी राधा का क्रोध शांत हो गया। शाप की बात सोचकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने दुःखी सुदामा को रोक लिया। तब मैंने श्रीराधा को समझाया और उन्हें धैर्य रखने के लिए कहा। इसके बाद मैंने सुदामा को आधे क्षण में ही दैत्य की योनि से मुक्त होकर पुन: गोलोक में लौट आने का वर प्रदान किया । हे देवताओ ! गोलोक के आधे क्षण में ही भूमण्डल पर सैकड़ों वर्षों का समय बीत जाता है। इस प्रकार, सबकुछ पूर्वनिश्चित व्यवस्था के अनुसार ही हो रहा है। अब शंखचूड़ की मृत्यु का समय निकट आ गया है। किंतु शंखचूड़ को वर प्राप्त है कि उसके गले में सुशोभित भगवती का कवच और देवी तुलसी का सतीत्व सदैव उसकी रक्षा करेंगे। अतः मैं अपनी माया द्वारा उसका कवच प्राप्त करके तुलसी का सतीत्व भंग करूँगा। तुलसी मेरी प्राणप्रिया है, इससे मुझे कोई पाप भी नहीं लगेगा। तब शंकर मेरा यह त्रिशूल लेकर शंखचूड़ का संहार कर दें। मृत्यु के उपरांत शंखचूड़ मुझ में लीन हो जाएगा और तुलसी अपना शरीर त्यागकर पुन: मेरी प्रिय पत्नी बन जाएगी। ‘यह कहकर भगवान् विष्णु ने शिवजी को अपना त्रिशूल सौंप दिया । त्रिशूल लेकर शिवजी ब्रह्मा आदि देवताओं के साथ वहाँ से चले गए।शंखचूड़ के वध के लिए शिव को नियुक्त करके ब्रह्मा ब्रह्मलोक लौट गए। देवताओं के उद्धार के लिए महादेव ने पुष्पभद्रा नदी के तट पर एक वटवृक्ष के नीचे आसन जमा लिया। तब भगवान् शिव के मन में शंखचूड़ को एक और अवसर देने का विचार उत्पन्न हुआ। गंधर्वराज चित्ररथ भगवान् शिव का एक अनन्य भक्त था। उन्होंने चित्ररथ को अपने पास बुलाकर अपना मनोरथ समझाया। तत्पश्चात् उसे अपना दूत बनाकर दैत्यराज शंखचूड़ के पास भेजा। नगर में पहुँचकर चित्ररथ ने शंखचूड़ से मिलने की इच्छा व्यक्त की । द्वारपालों ने उसे शंखचूड़ की सभा में पहुँचा दिया। उसे देखकर दैत्यराज शंखचूड़ बोला – “हे वीर ! तुम कौन हो ? यहाँ किस उद्देश्य से तुम्हारा आगमन हुआ है?”तब चित्ररथ बोला – “दैत्यराज ! मैं शिवजी का सेवक गंधर्वराज चित्ररथ हूँ। मैं अपने स्वामी का संदेश लेकर आपके पास आया हूँ। उन्होंने कहा है कि आप देवताओं का राज्य तथा उनके अधिकार लौटा दें, वरना आपका अंत निश्चित है।श्रीविष्णु की आज्ञा से शिवजी दिव्य त्रिशूल लेकर आपके विनाश के लिए तत्पर बैठ हैं। आप उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लें, नहीं तो वे आपका सेना सहित संहार कर देंगे।” यह कहकर चित्ररथ चुप हो गया।” बहुत खूब ! मेरी सभा में मुझे ही चुनौती, ” शंखचूड़ मुस्कराते हुए बोला ” ख़ैर, मैं कल प्रात: शिवजी से मिलने आऊँगा । ” शंखचूड़ का यह संदेश लेकर चित्ररथ भगवान् शिव के पास लौट गया। उसके जाने के बाद शंखचूड़ अंत:पुर में गया और तुलसी को दूत की बात बताई। उसकी बात सुनकर तुलसी दुःखी हो गई।उसे दुःखी देखकर शंखचूड़ बोला – “हे प्रिय ! कर्म के अनुसार फल निश्चित होता है। सुख, दुःख, भय, शोक और मंगल – सभी काल के अधीन हैं। काल के प्रभाव से ही वृक्ष उगते हैं, उन पर शाखाएँ फैलती हैं, पुष्प लगते और वे फल से लद जाते हैं। फिर काल ही उन फलों को पकाता है। फल-फूलकर बाद में काल के प्रभाव से वे सम्पूर्ण वृक्ष नष्ट भी हो जाते हैं । यही विधि का विधान है। जो वस्तु उत्पन्न होती है, उसका नाश भी अवश्य होता है । समयानुसार विश्व उत्पन्न होता है और समय पर ही उसका अंत हो जाता है । शोक व विपत्ति सामने आने पर ज्ञानी व्यक्ति को दुःखी नहीं होना चाहिए। अब तुम्हारा श्रीहरि से मिलन निश्चित है और मेरा भी गोलोक में जाना सर्वथा निश्चित है । अतएव मैं भी इस दैत्य – शरीर का परित्याग करके उसी दिव्य – लोक में लीन हो जाऊँगा । इस शुभ अवसर पर तुम शोक करके प्रभु-मिलन को अप्रिय मत बनाओ। जो होना होता है, वह होकर रहता है। अत: तुम शोक त्याग कर भगवान् श्रीहरि की उपासना करो । ‘इस प्रकार दैत्यराज शंखचूड़ ने तुलसी को दिव्य ज्ञान प्रदान करते हुए समझाया। ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान को पाकर देवी तुलसी के सभी शोकों का अंत हो गया और वह खुशी-खुशी भगवान् विष्णु की उपासना करने लगी।शंखचूड़ श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त था । उसने भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण करके अपनी सेना को तैयार होने का आदेश दे दिया। इसके बाद उसने अपने पुत्र का राज्याभिषेक किया और उसे अपना राज्य सौंपकर शिवजी के दर्शनों के लिए चल पड़ा। शंखचूड़ के आने का समाचार सुनकर देवताओं की सेना के सेनापति कार्त्तिकेय के साथ वीरभद्र, महाकाल, सुभद्र, विशालाक्ष, पिंगलाक्ष, बाणासुर, ताम्रलोचन, विकृति, सूर्य, अग्नि, यमराज, वायु, वरुण, आदि सभी योद्धा वहाँ आ गए।पुष्पभद्रा नदी के तट पर पहुँचकर शंखचूड़ ने भगवान् शंकर को देखा। उस समय भगवान् शिव योगासन की मुद्रा में बैठे हुए थे । ब्रह्मतेज से उनका मुख दीप्त हो रहा था। उनके आस-पास भद्रकाली व कार्त्तिकेय विराजमान थे। उन्हें देखकर दैत्य शंखचूड़ अपने दिव्य विमान से उतरा और मस्तक झुकाकर तीनों को प्रणाम किया। तब भगवान् शिव बोले – “राजन ! तुम्हारे पिता दम्भ ने तुम्हें पुत्र रूप में पाने के लिए पुष्कर में अनेक वर्षों तक कठोर तप किया था । पूर्वजन्म में तुम भगवान् श्रीकृष्ण के सुदामा नामक प्रिय पार्षद थे। गोपों में तुम्हारी प्रतिष्ठा थी। फिर देवी राधा के शाप के कारण तुम दैत्य – योनि में उत्पन्न हुए। तुम परम वैष्णव भगवान् श्रीकृष्ण के भक्त और एक विद्वान पुरुष हो, फिर देवताओं के तुच्छ राज्य में क्यों उलझे हुए हो? हे राजन! तुम देवताओं का राज्य वापस करके मुझसे इच्छित वर प्राप्त करो और अपने राज्य में सुख से रहो। “भगवान् शिव की तर्कसंगत बात सुनकर दैत्यराज शंखचूड़ बोला – “प्रभु ! आपका कथन सत्य है – लेकिन जिसके पास बल है, वही शासन का उपयुक्त अधि करी होता है और वही शासन कर सकता है – यह नियम भी स्वयं देवताओं का बनाया हुआ है। फिर स्वर्ग के राज्य के लिए तो देवताओं और दैत्यों का विवाद सदा से चला आ रहा है। इसका अंत संभव नहीं है। कभी वे जीतते हैं और कभी हम | इसलिए हम दो पक्षों के बीच आपका आना न्याय – संगत नहीं है। आप हमारे लिए भी पूजनीय और सम्मानीय हैं और देवताओं के लिए भी। इसलिए यदि इस समय आप हमसे युद्ध करेंगे तो यह आपके लिए अपकीर्ति की बात होगी । “-“शंखचूड़ की बात सुनकर भगवान् शिव हँसते हुए बोले ‘हे शंखचूड़ ! तुम भी ब्रह्माजी के वंशज हो और देवता भी । फिर तुम्हारे साथ युद्ध करने में मेरी क्या अपकीर्ति होगी? इससे पहले भी मधु और कैटभ के साथ श्रीहरि का युद्ध हो चुका है। स्वयं मैं भी त्रिपुर, अंधकासुर नामक अनेक दैत्यों का वध कर चुका हूँ। इसलिए हे राजन ! या तो तुम देवताओं का राज्य लौट दो या मुझसे युद्ध करने के लिए तैयार हो जाओ।”इतना कहकर भगवान् शिव चुप हो गए। तब दैत्यराज शंखचूड़ ने उन्हें प्रणाम किया और युद्ध के लिए तैयार हो गया।भगवान् शिव ने भी अपनी सेना को युद्ध का आदेश दे दिया। दोनों सेनाओं में युद्ध आरम्भ हो गया। शिवजी स्वयं कार्त्तिकेय के साथ वटवृक्ष के नीचे बैठ गए। उधर दोनों पक्षों के योद्धाओं में भयानक युद्ध आरम्भ हो गया।देव सेना के अनेक वीरों को दैत्यों ने पराजित कर दिया। दैत्यों का बल देखकर देवता डरकर भागने लगे। तब कार्त्तिकेय ने अपने तेज से गणों के बल में वृद्धि कर देवताओं को अभय प्रदान किया। तत्पश्चात् वे स्वयं दैत्यों के साथ युद्ध करने लगे। उन्होंने क्षणभर में ही हज़ारों दैत्यों को समाप्त कर दिया। कार्त्तिकेय के आक्रमण से दैत्य घबरा उठे। तब शंखचूड़ ने विमान पर सवार होकर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, जिससे चारों ओर भयंकर अंधकार छा गया। इसके बाद उसने आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया। जिससे देवताओं में भगदड़ मच गई। प्रतापी शंखचूड़ ने कार्त्तिकेय के धनुष को काटकर उनके रथ को छिन्न-भिन्न कर दिया। शंखचूड़ के दिव्यास्त्रों से कार्त्तिकेय के अंग-प्रत्यंग घायल हो गए। उन्होंने सहायता के लिए भद्रकाली का ध्यान किया।भद्रकाली ने फौरन पहुँचकर युद्ध की कमान सँभाल ली और शंखचूड़ पर नारायणास्त्र चलाया। उसे देखते ही शंखचूड़ ने मस्तक झुकाकर उस अस्त्र को प्रणाम किया। नारायणास्त्र उसी क्षण अदृश्य हो गया। तब देवी भद्रकाली ने अभिमंत्रित पाशुपत अस्त्र को चलाना चाहा तो एक आकाशवाणी हुई- “देवी भद्रकाली ! शंखचूड़ की पत्नी तुलसी एक परम साध्वी स्त्री है। जब तक उसका सतीत्व और शंखचूड़ का कवच बचा रहेगा, पाशुपत अस्त्र भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। इसलिए इन दिव्य अस्त्रों का प्रयोग करना अनुचित होगा । “-आकाशवाणी सुनकर भगवती भद्रकाली ने दिव्य अस्त्र-शस्त्र चलाने बंद कर दिए। वे दैत्यों को लीलापूर्वक निगलते हुए, शंखचूड़ की ओर झपटीं। लेकिन शंखचूड़ ने दिव्यास्त्र का प्रयोग करके उन्हें दूर ही रोक दिया। तब देवी भद्रकाली भगवान् शिव की शरण में गईं और उन्हें युद्ध का सारा हाल बताया। तत्पश्चात् भगवान् शिव स्वयं अपने गणों के साथ युद्ध – भूमि में आ गए। उन्हें देखकर दैत्य शंखचूड़ अपने रथ से उतरा और उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके पुनः रथ पर सवार हो गया और उनके साथ युद्ध करने लगा।शिवजी और शंखचूड़ में अनेक वर्षों तक युद्ध चलता रहा । न कोई जीतता था, न हारता। कभी समयानुसार शंखचूड़ शस्त्र रखकर रथ पर ही विश्राम कर लेता और कभी शिवजी शस्त्र रखकर अपने वाहन नंदी पर विश्राम कर लेते थे। शिवजी ने असंख्य दैत्य मार गिराए थे। लेकिन शंखचूड़ अभी जीवित था और चट्टान की तरह उनसे लोहा ले रहा था। आखिरकार जब शंखचूड़ किसी भी प्रकार से पराजित न हुआ, तब शिवजी ने भगवान् विष्णु का स्मरण किया।भगवान् शिव के स्मरण करते ही श्रीहरि एक अत्यंत वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण कर युद्धभूमि में प्रकट हुए और शंखचूड़ के निकट जाकर बोले – ” राजन ! तुम बहुत उदार और दानी हो । इस गरीब ब्राह्मण को भिक्षा देने की कृपा करो। तुम सभी की अभिलाषाएँ पूरी करते रहे हो । मुझ वृद्ध पर भी दया करो। हे राजन ! यदि तुम इच्छित दान देने की प्रतिज्ञा करो, तो मैं कुछ माँगूँ?”दैत्यराज शंखचूड़ प्रसन्नतापूर्वक बोला – ” ब्राह्मण देवता ! मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ कि मुझे युद्ध – भूमि में भी दान करने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है। आपको जो चाहिए, नि:संकोच माँगिए । मैं आपको इच्छित वस्तु प्रदान करने का वचन देता हूँ।’ तब अपनी माया फैलाते हुए श्रीहरि बोले – “हे राजन ! दान में मुझे तुम्हारा कवच चाहिए।” शंखचूड़ ने उसी क्षण अपने शरीर से कवच नोचकर उस वृद्ध ब्राह्मण को दे दिया। शंखचूड़ से कवच प्राप्त कर श्रीहरि शंखचूड़ का रूप धारण कर तुलसी के पास गए। पति को युद्ध से आया जानकर तुलसी ने हर्षपूर्वक उनका स्वागत किया। श्रीहरि ने तुलसी के साथ समागम करके उसके सतीत्व को खण्डित कर दिया और अपने सुंदर मनोहर रूप में प्रकट हो गए ।उन्हें देखकर तुलसी क्रुद्ध होते हुए बोली भगवन् ! आज आपने छलपूर्वक मेरा सतीत्व भंग कर मेरे स्वामी की हत्या करवा दी। आपका हृदय पाषाण के समान है, इसी कारण आप इतने कठोर बन गए। इसलिए हे देव ! मैं आपको शिला के रूप में परिणत होने का शाप देती हूँ। ” श्रीविष्णु को शाप देने के बाद शोकातुर तुलसी विलाप करने लगी।तब श्रीविष्णु बोले – “ तुलसी ! शोक मत करो। शंखचूड़ मेरा अंशरूप था। उसके अंदर मेरा ही निवास था। तुम मुझे पति रूप में पाने के लिए अनेक वर्षों तक कठोर तप कर चुकी हो। उस समय तुम्हारे समान शंखचूड़ भी तप कर रहा था। शंखचूड़ युद्ध में मरकर मुझ में लीन हो जाएगा। तुम भी दिव्य देह धारण कर मेरी पत्नी के रूप में सुशोभित होगी । तुम्हारा यह वर्तमान शरीर गण्डकी नदी के रूप में विख्यात होगा। तुम्हारे केशों से एक दिव्य वृक्ष उत्पन्न होगा जो तुलसी के नाम से प्रसिद्ध होगा। तुम्हारे शाप को सत्य सिद्ध करने के लिए मेरा एक अंश पाषाण रूप में स्थापित होगा, जो शालिग्राम के नाम से जाना जाएगा। जो भक्तजन तुलसी के साथ शालिग्राम का विवाह करेंगे, उनकी समस्त इच्छाएँ पूर्ण होंगी और वे मोक्ष के अधिकारी बन जाएँगे । ‘तब तुलसी ने अपने शरीर को त्यागकर दिव्य रूप धारण कर लिया और भगवान् विष्णु के साथ वैकुण्ठ लोक में चली गई। इधर युद्ध भूमि में शिवजी ने दैत्य शंखचूड़ पर भगवान् विष्णु का दिया हुआ त्रिशूल चला दिया। तब शंखचूड़ ने सारा रहस्य जानकर अपना धनुष फेंक दिया और योगासन लगाकर श्रीकृष्ण का स्मरण करने लगा। दिव्य त्रिशूल ने शंखचूड़ सहित सभी दैत्यों को अपनी तीव्र अग्नि में जलाकर भस्म कर दिया। शरीर के भस्म होते ही शंखचूड़ ने एक दिव्य गोप का वेश धारण किया और श्रीकृष्ण के विमान में बैठकर गोलोक में चला गया।Related