
अरब का एक विद्वान बादशाह शाहरूम भारत की यात्र पर आया। उसने भारत के संतों के बारे में बहुत प्रशंसा सुन रखी थी। वह जिस नगर में भी जाता संत फकीरों से मिलता। एक दिन बादशाह ने सुना कि पंजाब के एक नगर में सिखों के छठे गुरु हरराय जी विराजमान हैं। उनके बारे मे लोगों ने बादशाह को बताया कि वह बहुत ही उच्च कोटि के संत हैं। वह मन की हर दुविधा को दूर कर हर शंका का निवारण कर देते हैं। उनसे मिलने वाले को अनूठी शांति मिलती है। यह का उपदेश, सुनकर शाहरूम अफगानिस्ताम की ओर से लौटते हुए सत्वों से होगा गुरुजी के डेरे पर पहुँचा। वहाँ पहुँचकर बादशाह ने गुरु जी के चरणों में अपने देश से लाए मेवे भेंट किए और सादर प्रणाम कर उनके समीप बैठ गया।गुरु जी के चेहरे पर छाया नूर देखकर वह हैरान था। बादशाह ने हाथ जोड़कर उनसे कहा, ‘बाबा! आप बताने की मेहरबानी करेंगे कि हजरत ईमा, हजरत मूसा, हजरत मोहम्मद आदि पैगंबर खुदा के घर में पहुँचने में’ कितने मददगार साबित होते हैं और जीव का कल्याण कैसे संभव है?” गुरुजी ने बादशाह की बातों को ध्यान से सुना और कुछ देर सोचने के बाद वह बोले, “बादशाह! जीव का कल्याण तो उसके सदाचार से प्रदेश, ही हो सकता है। पीर, पैगंबर, औलिया, गुरु यह सारे तो“वे होगा सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं। वे बंदों को बुरे कर्मों से बचने की प्रेरणा ही दे सकते हैं। हमारा कल्याण तो हमारे अपने सत्कर्मों से ही होगा।”गुरु हरराय कुछ क्षण मौन रहे फिर उन्होंने कहा, ‘अपने कर्मों का फल तो औलिया, फकीर, साधु-संतों सभी को भोगना पडता है इसलिए इंसान को स्वयं ही सेवा व परोपकार आदि सत्कर्म करते रहना चाहिए।’ बादशाह शाहरूम ने अपने सफरनामे में गुरुजी के कल्याणकारी उपदेशों की प्रशंसा की है। वे जीवन भर उनके उपदेशों पर चलने की पूरी-पूरी कोशिश भी करते रहे।ये कहानी ‘ अनमोल प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं–Anmol Prerak Prasang(अनमोल प्रेरक प्रसंग) Related