
भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैंअचानक हवाई अड्डे वाली सड़क पर बनी पीर की दरगाह की चर्चा जोरों से होने लगी थी। वे दुश्मन के साथ लड़ी जा रही जंग के दिन थे। अफवाह फैल गई थी कि दरगाह के कदम्बर या सेवक को सरकार ने जासूसी के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया है। दरगाह के पीछे वाली झोंपड़ी में लगा एक ट्रांसमीटर भी पकड़ा गया है। अब सेवक की खूबसूरत बीवी दरगाह की सेवा का भार सम्भाले हुए है।सेवक की बीवी के बारे में भी कुछ ऐसी हवा बढ़ गई थी कि मनचले नौजवान उसके दर्शनों के लिए बेताब हो उठे थे। एक तरह के लोग कहते थे-वह बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी है, अंग्रेजी में बोलने वालों को जवाब अंग्रेजी में देती है। दूसरी तरह के लोग बोलते थे-उसे पीर तथा कई अलौकिक शक्तियों की सिद्धि है, दुनिया के हर कोने की बात वह घर बैठे ही जान लेती है। कुछ लोग ऐसा भी कहते सुने जाते थे कि अपाहिज सेवक तो बेचारा यूं ही पकड़ा गया, असली जासूस तो सेवक की रखैल है। सेवक द्वारा अपने दोनों हाथ काट कर पीर पर चढ़ाने की कहानियाँ भी जोर पकड़े हुए थी।फिर एक दिन खबर गश्त करने लगी थी कि सेवक जासूसी के अभियोग से मुक्त होकर लौट आया है। उसके आने में भी लोगों को उसकी बीवी की कोई करामात ही दिखाई देने लगी थी। इन अफवाहों के चक्कर का असर मुझ पर भी हुआ था और एक शाम मैं भी शहर के अन्य लड़कों की तरह दरगाह की भीड़ का हिस्सा बन गया था।भीड़ के गुबारों में से मुझे दिखाई दे रहा था कि दीयों की जगमगाहट में बैठा सेवक कटे हाथों की रुंड-मंड कलाइयों से श्रद्धाल भक्तों से लिफाफे ले-लेकर पीर पर चढ़ा रहा है। दाहिनी कलाई की उभरी हड्डी को दीये की लौ से बनी कालिख पर पिसा कर भक्तों के माथों पर तिलक कर रहा है। दरगाह के अरगले से बाहर निकल कर भक्त पंक्ति में बैठे बच्चों को बताशे बाँट रहे हैं। पास ही कूड़े के ढेर में से दो सूअर कुछ ढूंढ कर जबड़े चला रहे हैं। एक कुत्ता गुस्से में भर कर उन सूअरों पर टूट पड़ा है। सूअर चीं-ची कर के भाग खड़े हुए हैं। कुत्ता अब दुम हिलाता हुआ प्रसाद बांटने वाले के पीछे चलने लगा है तो सूअर आँख बचा कर फिर ढेर पर आ गए हैं। कुत्ता फिर उन को भगाने के लिए लपका है। यह क्रम थोड़ी-थोड़ी देर के बाद किसी सरकसी शो की तरह चल रहा है, जैसे उस सारे माहौल का यह भी एक आकर्षण हो। इस आकर्षण से निगाह हटती है तो दूसरी तरफ देखता हूँ कि विचित्र-सी शक्ल वाला आदमी जूते उतार कर दरगाह के अन्दर चला गया है और लिफाफा सेवक को दे कर दरगाह के सामने औंधे मुंह लेट गया है।दिमाग पर थोड़ा-सा जोर देता हूँ तो याद आ जाता है कि यह तो वही यूनिवर्सिटी में तीसरी पोजीशन पर आने वाला विद्यार्थी है। कुछ साल पहले की एक भीड़ और उस भीड़ में गर्व के साथ तनी इसकी गर्दन का दृश्य मेरी आँखों के सामने कौंध उठता है। बी. एस. सी. का परिणाम जानने के लिए यूनिवर्सिटी की सींखचों वाली खिड़की के सामने खड़ी विद्यार्थियों की लम्बी-लम्बी कतारें। नामी अमीरजादे एक फटे हाल गरीब से लडके को धक्का देकर बार-बार लाइन से बाहर कर देते हैं। किसी तरह हांफता हुआ, वह खिड़की के सामने पहुंचता है तो सींखचों में से एक गोरा गदराया हाथ बाहर निकल कर फैल जाता है, ‘कन्ग्रेचुलेष्ण मिस्टर प्रकाश! आप पूरी यूनिवर्सिटी में तीसरी पोजीशन पर हैं।’ मैं प्रकाश का कांपता हुआ पतला हाथ उस गदराए हाथ से मिलाता हूँ। देखते ही देखते लेने छोड़-छोड़ कर लड़कों और लड़कों की भीड़ उसे आ घेरती है। मैं भावुकता में आ कर उसके खाली हाथ अपने भरे हुए हाथों में लेकर चूम लेता हूँ। उसको मेरी अंगूठियों की चुभन बर्दाश्त नहीं होती। वह सी-सी करके अपनी उँगलियों के दागों को चाटने लगता है।लेकिन आज वही विज्ञान का मेधावी विद्यार्थी नितांत अवैज्ञानिक भीड़ का हिस्सा बना हुआ है। एक क्षण के लिए मैं अपने-आप में सिकुड़ जाता हूँ। जिन खानदानी सुविधाओं में पला हूँ, उनमें इस तरह के सवालों को उठाने के लिए कोई जगह नहीं है। इधर परीक्षा का परिणाम भी नहीं निकलने पाता कि उधर किसी नौकरी का बंदोबस्त हो जाता है। महान अंकल अपने महान पद का भरपूर फायदा उठाते हैं। फायदा न उठाने को एहमकपन समझते हैं।उसके दरगाह से बाहर निकलते ही मैंने आगे बढ़ कर अपना हाथ उसके कंधे पर रख दिया। वह बिना मेरी और देखे ही ‘हिश-हिश’ बोलता हुआ लिफाफे की सुरक्षा के लिए तन गया। मैंने प्रसाद लेने के लिए पीछे पड़े बच्चों को डपट कर भगा दिया। वह फटे हुए फौजी बूटों को कसता हुआ मुझे पहचानने की कोशिश करने लगा।‘कहो कैसे हो?’ मैंने आगे बढ़कर फिर उसके कन्धे पर हाथ रख दिया।‘अच्छा हूँ।’ कहकर उसने कन्धा सिकोड़कर मेरा हाथ हटा दिया और लिफाफा खोलकर बताशे देने लगा।‘नहीं, इसे रहने दो, एम. एस. सी. ज्वायन नहीं किया?’ मैंने सिग्रेटकेस खोलकर उसकी ओर बढ़ाया।‘उससे क्या होता?’ उसने चमकते हुए विदेशी सिग्रेटकेस पर एक नजर डाली, फिर पिघली हुई नजर से मेरी ओर देखकर जीभ से सूखे होंठों की पपडियाँ नरम करने लगा।‘आप तो बहुत ब्रिलियेंट लड़के थे… मेरा मतलब है, देश को आप जैसी प्रतिभाओं की…।’हूँ, ब्रिलिएंट… प्रतिभाएँ… देश… इस धरती की व्यवस्था को कुत्तों की जरूरत है, कुत्तों की।’‘ओ… समझा… आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया। आपको शायद पता नहीं कि मेरे अंकल पिछले पन्द्रह साल से केन्द्र में बहुत ऊँचे पद पर।’‘देखिए मेरी मां बहुत बीमार है, मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ और उसके बिना इस जहान में मेरा कोई नहीं है।’उसने मुझे वाक्य पूरा नहीं करने दिया और एक छीलती-सी नजर मेरे चेहरे पर डालकर पीठ मोड़कर चल दिया।अचानक भीड़ का एक रेला मुझ तक भी आ पहुंचा तो मुझे भी अपनी सुरक्षा के लिए संभलना पड़ा। सेवक की बीवी लाल रेशमी सूट पहन कर सेवक की सहायता के लिए आ गई थी। लोग उसके दर्शनों के लिए कन्धे के साथ कन्धा भिड़ा रहे थे। एक-दूसरे को धकेल रहे थे, नोच-खरोंच रहे थे, जैसे वह कोई धार्मिक स्थल न हो, समर भूमि हो।किसी तरह रेले से बाहर आ कर मैंने उसे ढूँढना चाहा, पर वह मुझे दिखाई नहीं दिया। नजर दूर जाकर टकराई तो वह पैरों में लम्बे-लम्बे बांस बाँध कर चलने वाले सरकसी आदमी की तरह बढा चला जा रहा था।फिर एक सुबह सरकारी अस्पताल में भी मुझे इस दरगाह जैसी ही भीड़ नजर आई थी। उस भीड़ को देख कर अखबारों में छपी इन खबरों पर यकीन होने लगा था कि बीमारियाँ भी नाशक दवाइयों से अपनी रक्षा के लिए शक्लें और नस्लें बदलने लगी हैं। कई बीमारियों के तो वंश तक मालूम करने मुश्किल पड़ रहे हैं।मेरे कुत्ते को भी कुछ इसी तरह की बेनाम बीमारी हो गई थी। एक जांघ सूख जाने की वजह वह लंगड़ाकर चलने लगा था। देह सूख कर काँटा होती जा रही थी। अक्सर सोते-सोते जाग उठता था और बेबसी में रोने लगता था। उसके रोने की आवाज से घर वालों की नींद हराम हो जाती थी। डैडी तो इस हक में थे कि अब इसे जहर दे कर मरवा देना चाहिए। लेकिन मुझे ही उससे कछ मोह हो गया था। सारे इस मोह का मजाक उडाते थे। दिल्ली वाले अंकल तो ठठाकर हंस देते थे-‘हमारे पूरे खानदान में यही एक अहमक है जिसे कुत्ते और आदमी में भी फर्क करने की तमीज नहीं।’ तमीज तो मुझे थी लेकिन शायद उन्हें यह पता नहीं था कि पूरे दो हजार रुपये खर्च करके, मैंने इसे विदेशी सैलानियों से खरीदा था।पता नहीं, क्यों कुत्ते की फिक्र करते वक्त मुझे युनिवर्सिटी में थर्ड पोजीशन पर आने वाले उस प्रकाश की याद आने लगती थी। कुत्ते और उसमें ऐसी क्या समानता थी, इस पर सोचना मुझे काफी तकलीफदेह लगता था।कुत्ते की जाँच का एक्सरे करवाना बहुत जरूरी हो गया था। वैटर्नरी हॉस्पिटल में एक्सरे का कोई इंतजाम नहीं था, इसलिए मुझे इंसानों के अस्पताल में जाना पड़ा था।अस्पताल के एक कोने में पुलिस की एक टुकड़ी तैनात थी। एक धीमी फुसफुसाहट में यह खबर फैली हुई थी कि देश का सब से बड़ा नेता इसी जगह कैद है। बहुत से लोग तो मात्र उसी के दर्शनों के मरीज बन कर वहां खड़े थे। पर मैं देख रहा था कि यह सब असंभव था। अस्पताल के एक हिस्से को पूरा डार्करूम बना कर रख दिया गया था। जहाँ कहीं काले कागजों से काम नहीं चल सका था, वहां ईंटों की दीवारें खड़ी कर दी गई थी। कोशिश यही थी कि रोशनी भी अन्दर का भेद न पा सके।एक्सरे वार्ड का भी लगभग यही हाल था। खास वक्त पर खास किस्म के लोग ही एक्सरे वार्ड में आ-जा सकते थे। जिस वक्त मैं वहां पहुंचा था, उस वक्त काफी देर से वही खास वक्त चल रहा था।खास वक्त खत्म होते ही एक मित्र डॉक्टर की सहायता से मेरा काम बहुत जल्द निपट गया था। इस मित्र डॉक्टर की नौकरी दिल्ली वाले अंकल की वजह से ही लगी थी। उसने बहुत से दूसरे मरीजों को वेटिंग लिस्ट में रख कर कुत्ते के केस को इमर्जेंसी केस बनाकर उसे तुरन्त एक्सरे टेबल पर पहुंचा दिया था। पता नहीं, क्यों कुत्ता टेबल पर लेटते ही रोने और गुर्राने लगा था। कई नौं और डॉक्टरों ने मिलकर बड़ी मुश्किल से उसे काबू किया था। सब लोग जानते थे कि मैं किस सरकारी खानदान से ताल्लुक रखता हैं। मझ तक पहुँचाने या मेरी नजर में चढने का बहाना वे खोना नहीं चाहते थे। एक डॉक्टर तो कुत्ते को बच्चे की तरह गोद में उठाकर कार तक छोड़ने भी चला आया था और उसे गद्दे पर बिठा कर बहुत देर तक प्यार करता रहा था।कुत्ते को साथ लेकर जब मैं वैटर्नरी अस्पताल की तरफ मुड़ा तो अहाते के दरवाजे पर भारी भीड़ देख कर मुझे कार रोकनी पड़ी। पेड़ के नीचे खड़ी रिक्शा में कोई बूढ़ा-सा लग रहा आदमी एक बीमार बुढ़िया को दोनों हाथों का सहारा दिए बैठा था। बुढ़िया दर्द के मारे हाय-हाय कर रही थी। रिक्शा को घेरे खड़ी पुलिस में से एक हवलदार रिक्शा वाले को डंडे से ठोक कर रिक्शा को पीछे की तरफ मोड़ने के लिए कह रहा था। आदमी दबी-दबी सी आवाज में विनती कर रहा था कि पहले बीमार मां को अस्पताल छोड़ आने दीजिए, फिर जहाँ आप चाहेंगे चला चलूंगा। लेकिन हवलदार की शिकायत थी कि वह तीन दिन पहले भी चकमा देकर भाग गया था। अब तो उसे साथ ही चलना पड़ेगा, बाद में बुढ़िया को जहाँ जी चाहे लेकर चला जाए।रिक्शा वाले ने विवशता में गर्दन हिलाकर रिक्शा मोड़ी तो भीड़ में से एक छोटी उम्र की औरत ने निकलकर रिक्शा के हैंडल को पकड़ लिया‘तुम लोग इन्हें इस तरह नहीं ले जा सकते।’‘और कैसे ले जा सकते हैं।’ हवलदार ने अपने रीछिया पंजे से उसका जबडा पकडकर ऐसे दबाया कि वह चीख मारकर उसके पीछे जा गिरी। दो पुलिसमैन उसपर पिलने ही वाले थे कि दो औरतों ने आगे बढ़कर उसे उठा लिया और खींचकर अहाते की ओर ले चली।रिक्शा जाने के बाद किसी ने पूछा ‘यह औरत कौन थी? भई बड़े जिगरे वाली थी।’जवाब मिला ‘इस नामुराद की मंगेतर है, जिगरा नहीं करेगी, तो और क्या करेगी?’बात करने वाले मुझे यूथ वालंटयर लगे। मैं समझ गया कि आबादी कम करने की कार्रवाई की मुहिम आज इस इलाके में चल रही है। देखते ही देखते पुलिस के संरक्षण में आदमियों से भरे ट्रक मेरे सामने से गुजर गये। मैने घड़ी देखी और निर्णय किया कि अस्पताल जाने से पहले कुत्ते को खाना खिला लिया जाए। मेरा चेहरा देखते ही चौक में ड्यूटी पर खड़े सिपाही ने मुझे सैल्यूट मारा और मैं गर्दन हिलाकर घर की ओर मुड़ चला।लगभग डेढ़ घंटे बाद जब मेरी कार वेटर्नरी अस्पताल के सामने जाकर रुकी तो मेरी पहली नजर उस रिक्शा पर पड़ी थी जो सड़क के बीचों-बीच इज्जत लुटी औरत की तरह छोड़ दी गई थी। उसमें पैर रखने वाली जगह पर वही बीमार बुढ़िया जिबह की हुई बकरी की तरह निढाल पड़ी थी। उसके खून-सुते पीले चेहरे पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पास ही दीवार पर बैठा एक कौआ तीखी नजर बुढ़िया पर टिका कर फुदक-फुदक कर कुरला रहा था। उसके आमन्त्रण पर कुछ दूसरे कौवें भी वहां मंडराने लगे थे। ये कौवें इतने बदतमीज और निडर थे कि बेचौकसी में खड़े जानवर का मांस नोचकर उड़ जाते थे। अब यही कौवें ऑपरेशन थिएटर के नाम पर खड़े किये गये तम्बू में से ट्रे लेकर निकली नर्स पर भी झपट पड़े थे।दूसरी तरफ पेड़ के नीचे पुलिस के सख्त पहरे में गरीब मजदूरों, दुकानदारों, किसानों और फेरीवालों की भीड़ खड़ी थी। लोग फांसी के मुजरिमों की तरह अपनी-अपनी बारी की प्रतीक्षा भोग रहे थे।धूल उड़ाते बेगार के ट्रक, सीमन लेने के लिए पाले गये भैंसों के बाड़े तक पहुंचते थे, वहीं से सहमे-कांपते बेजबान लोग पेड़ के नीचे आकर चुपचाप खड़े हो जाते थे। कोई थोड़ी-सी भी हुज्जत करता था, गिडगिडाता था तो उसकी पिटाई खुलेआम शुरू हो जाती थी। ऊपर से सख्त हिदायत थी कि परिवार नियोजन ही देश का भविष्य है, इसमें रत्ती भर भी ढील या कुताही बरतना देश के प्रति गद्दारी है।सारा काम एक साथ इस कदर जोरों से चल रहा था कि आदमियों के अस्पताल में जगह न मिलने पर जानवरों के अस्पताल इस्तेमाल करने पड़ रहे थे। जिला अधिकारियों ने अस्थाई डॉक्टर भर्ती कर लिए थे, फिर भी यदि डाक्टरों की कमी महसूस होती थी तो जानवरों के डॉक्टर हाथ बंटाने के लिए तैयार रहते थे।अस्पताल के बाहर प्रचार के लिए लगाए गए बड़े-बड़े शामियानों के आस-पास और पेड़ के नीचे की भीड़ में से किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि बुढ़िया की देह और उसके डरावने चेहरे को ढक दें। अपने-अपने संकट में उलझे लोगों में से किसी को रिक्शा किनारे लगा देने का ख्याल भी नहीं आया था। रिक्शा वाला भी बुढ़िया की नाजुक हालत से घबरा कर दुबारा ऑपरेशन करवाने के लिए भीड़ में जा खड़ा हुआ था।सहसा नाटक के पर्दे की तरह तंबू के द्वार का पर्दा हटा और उससे वही बूढ़ा आदमी निकला और बड़ी मुश्किल से कदम रखता हुआ रिक्शा की ओर बढ़ने लगा। पास आकर उसने आँखें चौड़ी करके बुढ़िया के चेहरे को देखा। सहसा उसकी बांसों जैसी टाँगें थर-थर कांपने लगी। कांपते हुए हाथों से उसने धोती का पल्लू उठाया और बुढ़िया का चेहरा ढक दिया।फिर उसके दोनों हाथ अपने हडियल चेहरे पर बिछ गए। उसने योगासन करने वाले की तरह साँस खींचकर मुंह ऊपर उठा लिया और पागलों की तरह कुछ बुदबुदाने लगा। फिर उसके मुंह से एक दर्दीली दहाड़ फूट पड़ी और वह बुढ़िया के शव के साथ लिपट कर रोने लगा।उसका रोना सुनकर बाहर शामियाने में काम कर रहे कुछ लोग चौंके और उनमें से कुछ ने रिक्शा को घेर लिया। रिक्शावाला भी रिक्शा के पास भीड़ को देखकर उसमें जा समाया। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए एक पुलिसमैन डंडा उठाकर भीड़ की तरफ लपका, लेकिन कुछ यूथ चेहरों को पहचान कर डंडे से बट का ठडा पीटता हआ वापस मुड गया। सिपाही को यूं मुड़ा देख, पेड़ के नीचे से उखड़ कर कुछ दूसरे वर्कर भी वहाँ पहुँच गए।मुझे लगा कई कि इस वक्त भीड़ में मुझे भी होना चाहिए। अगर कहीं इलैक्शन हुआ भी तो दिल्ली वाले अंकल के आदमी की मदद करने के लिए इस भीड़ की पहचान काम आएगी। मैं कार से उतर कर आगे बढ़ा तो कुछ यूथ सेवको ने मेरा चेहरा देख कर सलाम किया। सलाम पड़ते ही भीड़ ने मेरे लिए रास्ता छोड़ दिया।पास आकर मैंने उस बूढ़े को पहचाना तो मेरी हैरत का ठिकाना न रहा। वह वही यूनिवर्सिटी में तीसरे नंबर पर आने वाला प्रकाश था, जिसने परिणाम निकलने के कुछ दिन बाद ही आगे पढ़ने की बात चलने पर, खुशी-खुशी अपनी माँ की ख्वाहिश बताई थी-जब तू पास हो गया है तो कोई अच्छी-सी नौकरी कर ले, चाँद जैसी बहू ले आ। देख, अब मैं मशीन चलाते-चलाते थक गई हूँ, अब मैं आराम करना चाहती हूँ।मैंने कंधे पर हाथ रखकर रिक्शावाले से पूछा –‘तुम इसे जानते हो?’रिक्शावाले को पहले मुझ पर शक हुआ। वह भीड़ में से कोई पहचाना चेहरा खोजने लगा ताकि मेरे सवाल का जवाब दिया जा सके। जब कोई दिखाई नहीं दिया तो उसने गर्दन झुका ली और एक छुपावभरे लहजे में बोल दिया, ‘नहीं।’मैंने दूसरे तने हुए चेहरों की तरफ देखा। चहरे नजरें बचाकर एक-दूसरे के कानों में मुंह फंसा कर फुसफुसाने लगे। फिर रिक्शावाले ने जैसे बड़ा ही हौंसला करके मुझसे पूछ लिया-‘आप तो इसे जरूर जानते होंगे?’‘मैं।’मैंने अपने चहरे पर उठी आँखों की भीड़ से आँखें बचाकर माँ की लाश पर बिछे बेटे को संभालना जरूरी समझा। मेरे छूते ही वह गौर से मुझे देखने लगा। उसकी आँखों के शीशों में अपना चेहरा देखते ही मेरे दिमाग में आया कि अगर इस प्रतिभावान लड़के के वंश में केवल यह बुढ़िया ही थी तब तो इस बेचारे का वंश नाश ही हो गया। साथ ही मन में यह विचार भी कौंधा कि दिल्ली वाले अंकल जो कभी-कभी दल बदलने की बात करते हैं, ठीक ही करते हैं। चापलूस कुत्ते कभी भी धोखा दे सकते हैं।मुझे पहचानते ही वह बड़े जोश के साथ उठा और आगे बढ़कर एक आत्मीय की तरह मुझसे लिपट गया।रिक्शावाला उसकी पीठ को सहलाता हुआ बोल रहा था- “अब लाश को इन्हीं पुलिस वालों के हवाले कर दो प्रकाश, इस तरह खाली हाथ तो इसका दाह संस्कार भी करना मुश्किल होगा।”लेकिन प्रकाश ने रिक्शावाले की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया।सहसा मुझे लगा कि उसके खाली हाथों की बांस की खपच्चियों जैसी सख्त उंगलियाँ मेरी गर्दन की नसों पर आ पड़ी हैं। आहिस्ता-आहिस्ता उँगलियों का शिकंजा कसता चला जा रहा है। अपनी बाहर निकली आँखों से मैं देख रहा हूँ, मेरा प्यारा कुत्ता बड़े ही इत्मिनान से बैठा कार के बड़े-बड़े शीशों में से मेरी यह हालत देख रहा है।भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’Related