कोष्टी समाज का गौरवशाली इतिहास: बुनकरी से लेकर आधुनिकता तक का सफर
कोष्टी समाज का इतिहास: धागों से बुना एक गौरवशाली और कलात्मक विरासत का सफर
What is the history of Koshti weavers community? (कोष्टी बुनकर समुदाय का इतिहास क्या है?) यह प्रश्न हमें भारत की उस प्राचीन और कलात्मक विरासत की ओर ले जाता है, जिसे कोष्टी समाज ने सदियों से अपने धागों में संजोकर रखा है। कोष्टी समाज, जिसे मुख्य रूप से एक पारंपरिक बुनकर समुदाय के रूप में जाना जाता है, का इतिहास केवल कपड़े बुनने तक सीमित नहीं है; यह कला, संस्कृति, आध्यात्मिकता और सामाजिक संघर्ष की एक समृद्ध गाथा है।
रेशम और सूत के धागों को अपनी उंगलियों के जादू से खूबसूरत साड़ियों और वस्त्रों में बदलने वाले इस समुदाय की जड़ें पौराणिक काल तक जाती हैं। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में प्रमुख रूप से बसे इस समाज ने भारतीय वस्त्र उद्योग की रीढ़ के रूप में काम किया है। आइए, इस लेख में हम कोष्टी समाज के गौरवशाली इतिहास, उनकी उत्पत्ति की पौराणिक कथाओं, विभिन्न उप-जातियों और आधुनिक समय में उनके योगदान की गहराई से पड़ताल करें।
कोष्टी समाज की पौराणिक उत्पत्ति: मार्कण्डेय ऋषि के वंशज
कोष्टी समाज अपनी उत्पत्ति का स्रोत भगवान शिव के परम भक्त और महान मार्कण्डेय ऋषि से जोड़ता है। पौराणिक कथा के अनुसार:
एक बार देवताओं को शरीर ढकने के लिए वस्त्रों की आवश्यकता पड़ी। उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। भगवान शिव ने उन्हें बताया कि केवल मार्कण्डेय ऋषि ही इस कार्य को कर सकते हैं। जब देवता मार्कण्डेय ऋषि के पास पहुंचे, तो उन्होंने बताया कि उनके पास वस्त्र बनाने के लिए आवश्यक धागा (सूत) नहीं है।
तब ऋषि ने भगवान विष्णु की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु ने उन्हें कमल की नाल से निकलने वाले दिव्य और कोमल तंतु (धागे) प्रदान किए। इन्हीं दिव्य धागों से मार्कण्डेय ऋषि ने पहला वस्त्र बुना और देवताओं को अर्पित किया। माना जाता है कि इसी परंपरा को आगे बढ़ाने वाले उनके वंशज ही ‘कोष्टी’ कहलाए। ‘कोश’ या ‘कोसा’ का अर्थ रेशम होता है, और इसी से ‘कोष्टी’ शब्द की उत्पत्ति हुई, जिसका अर्थ है रेशम का काम करने वाले।
कोष्टी समाज की प्रमुख उप-जातियाँ
समय के साथ, भौगोलिक और सामाजिक कारणों से कोष्टी समाज कई उप-जातियों में विभाजित हो गया। इनमें से कुछ प्रमुख हैं:
- हल्बा कोष्टी (Halba Koshti): यह समुदाय मुख्य रूप से मध्य भारत, विशेषकर महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पाया जाता है। वे अपनी पारंपरिक बुनाई कला, विशेष रूप से कोसा सिल्क साड़ियों के लिए प्रसिद्ध हैं।
- देवांग कोष्टी (Devanga Koshti): यह दक्षिण भारत, विशेषकर कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में एक प्रमुख बुनकर समुदाय है। ‘देवांग’ का अर्थ है ‘देवताओं के अंग’, जो उनके दिव्य उत्पत्ति के सिद्धांत को दर्शाता है। वे कपास और रेशम की बुनाई में माहिर हैं।
- गढ़ेवाल कोष्टी (Gadhewal Koshti): यह कोष्टी समुदाय का एक महत्वपूर्ण उप-समूह है, जो मुख्य रूप से मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में पाया जाता है। “गढ़ेवाल” नाम की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न मान्यताएं हैं, कुछ का मानना है कि यह किसी स्थान ‘गढ़’ से संबंधित है, तो कुछ इसे उनकी विशिष्ट सामाजिक संरचना से जोड़ते हैं। पारंपरिक रूप से, गढ़ेवाल कोष्टी भी बुनाई के पेशे से जुड़े रहे हैं और सूती वस्त्रों के निर्माण में उनकी विशेष विशेषज्ञता रही है। उनकी अपनी अलग सामाजिक परंपराएं, रीति-रिवाज और कुलदेवता हैं जो उन्हें अन्य कोष्टी उप-समूहों से अलग पहचान देते हैं।
- साली या सालेवार कोष्टी (Sali/Salewar Koshti): यह भी एक महत्वपूर्ण उप-जाति है, जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र और आस-पास के क्षेत्रों में बसी हुई है।
- लाड कोष्टी, आदि: इनके अलावा भी कई क्षेत्रीय उप-समूह हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट परंपराएं और रीति-रिवाज हैं।
तुलनात्मक सारणी: हल्बा कोष्टी बनाम देवांग कोष्टी
पहलू | हल्बा कोष्टी (Halba Koshti) | देवांग कोष्टी (Devanga Koshti) |
भौगोलिक क्षेत्र | मध्य भारत (महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़)। | दक्षिण भारत (कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु)। |
भाषा | मराठी, हिंदी और छत्तीसगढ़ी बोलियों का प्रभाव। | कन्नड़, तेलुगु और तमिल। |
मुख्य बुनाई | कोसा (टसर) सिल्क साड़ियाँ और वस्त्र। | सूती (Cotton) और रेशम (Silk) की साड़ियाँ और धोतियाँ। |
उत्पत्ति कथा | मार्कण्डेय ऋषि की परंपरा से अधिक जुड़े हुए। | देवांग पुराण के अनुसार, वे ‘देवला महर्षि’ के वंशज माने जाते हैं। |
सामाजिक संरचना | कई उप-गोत्रों में विभाजित। | अपनी विशिष्ट सामाजिक और धार्मिक संरचना। |
कोष्टी समाज की कला: हथकरघे का जादू
कोष्टी समाज की पहचान उनकी अद्भुत बुनाई कला से है। उन्होंने पीढ़ियों से इस पारंपरिक ज्ञान को जीवित रखा है।
How-To: एक पारंपरिक कोष्टी साड़ी कैसे बनती है? (संक्षिप्त प्रक्रिया)
चरण 1: धागे की तैयारी (Yarn Preparation)
- रेशम के कोकून या कपास से धागा निकाला जाता है। फिर इसे प्राकृतिक रंगों (फूलों, पत्तियों, खनिजों से बने) से रंगा जाता है।
चरण 2: ताना-बाना बनाना (Warping and Wefting)
- रंगे हुए धागों को हथकरघे (Handloom) पर लंबाई में लगाया जाता है, जिसे ‘ताना’ कहते हैं। फिर ‘बाना’ (चौड़ाई का धागा) को शटल की मदद से ताने के धागों के ऊपर-नीचे से गुजारा जाता है।
चरण 3: डिजाइन और बुनाई (Designing and Weaving)
- डिजाइन (बूटी, बॉर्डर, पल्लू) के अनुसार, बुनकर अत्यंत धैर्य और कुशलता के साथ धागों को बुनता है। एक जटिल साड़ी को बुनने में कई दिनों से लेकर महीनों तक का समय लग सकता है।
चरण 4: फिनिशिंग (Finishing)
- बुनाई पूरी होने के बाद, साड़ी को करघे से उतारा जाता है, अतिरिक्त धागे काटे जाते हैं और उसे अंतिम रूप दिया जाता है।
यह कला सिर्फ एक व्यवसाय नहीं, बल्कि एक साधना है। इस कला के बारे में अधिक जानने के लिए आप स्थानीय कारीगरों और हस्तशिल्प पर हमारा लेख पढ़ सकते हैं।
आधुनिक समय में कोष्टी समाज: चुनौतियाँ और बदलाव
समय के साथ, कोष्टी समाज को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है:
- पावरलूम से प्रतिस्पर्धा: मशीनी करघों (Powerlooms) के आने से हाथ से बने कपड़ों की मांग और कीमत प्रभावित हुई।
- युवा पीढ़ी की अरुचि: बुनाई के काम में मेहनत अधिक और मुनाफा कम होने के कारण, युवा पीढ़ी अब अन्य व्यवसायों और नौकरियों की ओर आकर्षित हो रही है।
- कच्चे माल की बढ़ती कीमतें: रेशम और कपास जैसे कच्चे माल की कीमतें बढ़ने से उनकी लागत बढ़ गई है।
इन चुनौतियों के बावजूद, कोष्टी समाज ने खुद को समय के साथ ढाला है। आज इस समाज के लोग केवल बुनाई तक सीमित नहीं हैं। वे शिक्षा, राजनीति, चिकित्सा, इंजीनियरिंग और व्यापार जैसे हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रहे हैं। कई युवा डिजाइनर पारंपरिक बुनाई को आधुनिक डिजाइन के साथ मिलाकर उसे एक नया जीवन दे रहे हैं।
कोष्टी समाज से जुड़े कुछ और महत्वपूर्ण लेख –
- भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु उद्योगों का योगदान
- हिंदू कैलेंडर और महीनों का महत्व
- भारत के स्वतंत्रता सेनानी और उनका योगदान
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
प्रश्न 1: What is the history of Koshti weavers community?
उत्तर: कोष्टी बुनकर समुदाय का इतिहास पौराणिक मार्कण्डेय ऋषि से जुड़ा है, जिन्हें वस्त्रों का पहला निर्माता माना जाता है। यह समुदाय पारंपरिक रूप से रेशम और सूती वस्त्रों की बुनाई की कला के लिए जाना जाता है और भारत के वस्त्र उद्योग में इसका एक गौरवशाली अतीत रहा है।
प्रश्न 2: कोष्टी समाज मुख्य रूप से कहाँ पाया जाता है?
उत्तर: कोष्टी समाज मुख्य रूप से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में केंद्रित है।
प्रश्न 3: कोष्टी समाज के कुलदेवता कौन हैं?
उत्तर: अधिकांश कोष्टी समुदाय के लोग मार्कण्डेय ऋषि को अपने कुल गुरु और भगवान शिव, विष्णु और देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों को अपने कुलदेवता या कुलदेवी के रूप में पूजते हैं।
प्रश्न 4: कोसा सिल्क क्या है?
उत्तर: कोसा सिल्क एक प्रकार का टसर सिल्क है जो छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के क्षेत्रों में पाया जाता है। हल्बा कोष्टी समुदाय इस सिल्क की साड़ियाँ बनाने में माहिर है।
प्रश्न 5: क्या कोष्टी समाज OBC श्रेणी में आता है?
उत्तर: हाँ, भारत के अधिकांश राज्यों में कोष्टी समाज को अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) श्रेणी के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है।
निष्कर्ष
कोष्टी समाज का इतिहास धागों की मजबूती, रंगों की जीवंतता और कला के प्रति अटूट समर्पण की कहानी है। उन्होंने न केवल भारतीय वस्त्र परंपरा को समृद्ध किया है, बल्कि अपनी मेहनत और कला से देश की सांस्कृतिक पहचान को भी एक नया आयाम दिया है। भले ही आज वे नई चुनौतियों का सामना कर रहे हों, लेकिन उनकी विरासत और कला आज भी उतनी ही मूल्यवान और प्रासंगिक है। यह हम सभी का कर्तव्य है कि हम इस पारंपरिक कला का सम्मान करें और इसे जीवित रखने में अपना योगदान दें।
(Disclaimer: यह लेख ऐतिहासिक, पौराणिक और सामाजिक अध्ययनों पर आधारित है। विभिन्न क्षेत्रों में कोष्टी समाज की परंपराओं और मान्यताओं में भिन्नता हो सकती है।)